fagudas@ dairy| गाथा एक अद्भुत घुमक्कड़, दार्शनिक, एंग्रीमैन की!|साभार-वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कठैत

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सिटी लाइव टुडे, मीडिया हाउस-साभार-वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कठैत

कभी- कभी किसी पुस्तक को पढ़ते -पढ़ते उसके पात्र, कथ्य, कथानक यहां तक की देश काल भी चलचित्र की भांति हमारी आंखों के सामने तैरने लगते हैं। साथ ही कथानक के उतार चढ़ाव के प्रवाह में हम अपनी भाव भंगिमाओं को न केवल महसूस करने लगते हैं बल्कि वर्षों तक वे मन मस्तिष्क में जमे रहते हैं।

वस्तुत: यह कलम की अनुभवजनित क्षमता है। जरूरी नहीं उसका लेखक किसी विश्वविद्यालय का पढ़ा लिखा है या उसके आगे डा. अथवा प्रोफेसर चस्पा है। वह मामूली अक्षर ज्ञान से भी यह करिश्मा कर सकता है। यकीन न हो तो ‘फागूदास की डायरी’ को पढ़ा जा सकता है।

प्रथमत: इस पुस्तक से जुड़े दो महानुभाव साधुवाद के पात्र हैं – श्री पद्मादत तथा प्रो प्रभात कुमार उप्रेती! पद्मादत्त जी के पास यह धरोहर दशकों तक सुरक्षित रही और यदि प्रो. उप्रेती आगे सदप्रयास न करते तो शुरू में पुस्तक की तीन शब्दों की जो इबारत है- शायद हमें वह भी देखने को न मिलती । इसी पुस्तक की भूमिका में प्रो. उप्रेती लिखते भी हैं कि-‘ यह डायरियां मुझे मिलीं उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के रिटायर्ड प्रधानाचार्य लोक के जानकार पद्मादत्त जी के यहां,जो फागूदास के मित्र थे। यह डायरियां कुछ सीलन भरी, कुछ दीमकों की खायी थी। कहीं अक्षर गायब, कहीं वाक्य गायब,भाषा पूरी अशुद्ध पर अपने कंटेंट में एक महान यात्रा का नक्शा।अपनी सधुक्कड़ी भाषा में लिखी यह डायरी मैंने पढ़ी तो चैन खो गया। समाज की बेरहम मार से पैदा होने से मरने तक जूझता यह इंसान,क्या इंसान था, जो अनजाने मर गया।’

लेकिन प्रो उप्रेती के संचयन/संपादन से एक अनमोल कृति ही नहीं अपितु उसके रचनाकार की आत्मा को जो तसल्ली दी – वह किसी बड़े साहित्यिक यज्ञ से कम नहीं।

क्या है ‘फागूदास की डायरी?’
आइये पुस्तक खोलें और पढ़ते चलें एक रोंगटे खड़े कर देने वाले चलचित्र की भांति ! –

‘ मेरा नाम पनचूदास पिता अकलूदास! ग्राम मलमलला, जिला मुंगेर,प्रांत विहार।

पिता…वह मेरी माता जी को छोर कर दूसरे औरत से शादी कर लिया। और मुझे और मेरे मातजी को छोर दिया।…माता जी मेरे को साथ लेकर अपनी मां के घर चली गयी।…मामी ने मुझे मट्टी का तेल नमक और अफीम खला दिया।यह बात माताजी को मालूम हुई तो वह मेरे को लेकर वापस गांव चली गयी। और उसी गांव में एक दरिद्र के साथ शादी कर ली। एक गांव में दोनों का इस स्थिति में झगरा खरा हो गया। माताजी की इच्छा थी बालक मेरे साथ रहे . .. पंचायत हुई और पंचायत ने फैसला पिताजी के लिए दिया।और इस फैसले से मेरा नाम पनचूदास परा।

… अब ये हो गया कि अगर मैं पिताजी के पास जाता तो मेरा सौतेला मां मुझे कष्ट देता और अगर माताजी के पास जाता तो दूसरा सौतेला पिताजी मुझे कष्ट देते थे।.. .अगर मेरा देखरेख करती तो एक दादी करती थी। मगर वो भी थोरा दिन सहायता किया फिर उसका मृत्यु हो गया।… पंचों ने पिता से पूछा कि क्या करना है तो पिता ने कह दिया कि यह घर से निकल जाय। इस पर पंचों ने निर्णय दिया – माता पिता ने तुम्हें छोड़ दिया इसलिए इस संसार में तुम जहां चाहो चला जावो। अब तुम्हारा पिता आसमान है और धरती माता।

…और 14 साल थी और फागुन का आंखिरी दिन मे होली का तीसरा दिन था। जब घर छोरा तो बारह हाथ धोती के सिवा कुछ न था।…बेटिकट ट्रेन में सवार होकर संसार से टक्कर लेने चल पड़ा।…भीख मांगता तो लोग डंडा लेकर आते कि इतना हट्टा कट्टा हो कर भीख मांगता है। ओर सोचता जमाना तो दुश्मन होगा ही जिसका मां बाप ही दुश्मन है। …पहिला दुश्मन पिताजी बना दूसरा दुश्मन दुनिया बनने जा रहा था।..

एक दिन गाड़ी में भूखा प्यासा दुखी होकर गाने लगा तो कुछ लोगों ने पैसा दिया और कुछ पैसा हो गया। पनचूदास से फागूदास हो गया।

  • अमीन गांव रेलवे स्टेशन पर यह विचार आया कि जिस पिता ने छोर दिया उसका दिया कपड़ा क्यों पहंनू। इसलिए पहना कपरा जला दिया और नया कपरा पहिना। फिर गौहाटी शहर में एक रेलवे ड्राइवर के वहां कपड़े धोने और बच्चे खिलाने का काम किया। ‘

-परिस्थितियों ने उन्हें यहां भी धोखा ही दिया। फिर उनके जीवन में एक नया अध्याय खुला- पाकिटमारी।

पाकिटमारी पर फागूदास लिखते हैं ‘ पाकिटमारी बरा कलेजे का काम है।.. .चलता फिरता आदमी से पैसा निकाल लेना चाहे वह जितना भी पढ़ा लिखा हो पराक्रमी हो…बिना रसीद दिये मनिआर्डर पर देता था।…मैं अपने दुख दर्द का इतिहास लिख रहा हूं। और समझदारों को मोती दे रहा हूं।… गलत रास्ता जूआ शराब में ही जाता है। और जनता सरकार को नुकसान ही होता है। मैंने अपना ही सवाल किया अपना ही ज़बाब किया। दोनों हाथों से अपना कान पकर कर जोर से थप्पर मारा और हाथ उठाकर प्रतिज्ञा किया कि आज से चोरी छोर दिया।

…आखिर कार रोजगार मांगते हुए अपर आसाम पहुंचा।… काम था कपड़ा धोना बर्तन मांजना और अन्य कार्य।वेतन आठ रूपया खाना और कपड़ा था। एक आना रोज बीड़ी पीने को मिलता था।…जब मालिक अपने बच्चों को पढ़ाता तो मैं भी पढ़ने बैठता था। यह बंगाली होने के कारण मैं भी बंगाली सीखा।’ …सिवसागर पीडब्लु डी में मैंने आठ रूपया में काम प्रात किया। काम शुरू किया तो एक बरा बिमारी पकर लिया।… कमजोर होने से वहां से हटा दिया गया।.. .नाहर कटिया पहुंचा। वहां एक हैड मास्टर से मुलाकात हुआ।…उसको भी आदमी का जरूरत था। … यहां वेतन दस रूपया खाना कपड़ा दो आना। दो आना रोज का बीरी।साथ दिन में दो माचिस।…

मैं जानता हूं जो अध्ययन कर्ता जितना साहित्यक होगा उतना ही वह खुद और दूसरों का फायदा उठा सकते हैं। आप सर्वसाधारण से मेरा निवेदन यही है कि इस जगह में जो भी लिखा गया है उसमें केवल एक इतिहास की निशानी मिलेगा। आग लगता है मकान में सब दौरता है मगर अन्दर में जो आग प्राणी को लगता है वह बहुत कम लोग देखता है।’

  • फागूदास जी कि यात्राओं की फेहरिस्त लम्बी है लेकिन अचरज भरी है। दार्जलिंग,कालिंग पोंग से पैदल सिक्किम, यहां से वापस दार्जलिंग। फिर सिलीगुड़ी तक पैदल चल कर रेल से काठगोदाम। अप्रेल 1953 में रानीखेत बागेश्वर से तेजम होते हुए मुनस्यारी पिथौरागढ़, वहां से गोरी नदी के किनारे किनारे नेपाल तिब्बत सीमांत जौलजीबी। वहां से नेपाल। लिपूलेक, ताकलाकोट तिब्बत मानसरोवर। एक अन्य जगह पर पुनः नेपाल यात्रा का वर्णन यूं है- धरान से धनकचट्टा, धनकुट्टा से काठमांडू। फिर काशीपुर पहुंचे।

1955 की फरवरी से भारत यात्रा का वर्णन है। मुरादाबाद, चंदौसी, अलीगढ़ होते हुए मथुरा वृन्दावन। इसके बाद दिल्ली,मथुरा,आगरा,बनारस,इटारसी,ग्वालियर,मैसूर। पुनः काशीपुर पहुंच जाते हैं। उप्रेती जी लिखते हैं काशीपुर उनके लिए बेस कैंप है। यात्रा की थकान वह वहीं मिटाते हैं फिर वह आगे की यात्रा करते हैं।

15 मार्च 1956 से कश्मीर की कठिन यात्रा पर निकल पड़े। वैष्णो देवी, गुलमर्ग,वारामुला,सोपीयन होकर वालर झील का चक्कर लगा फिर सनमर्ग। सनमर्ग से अमरनाथ।
कश्मीर से लौटकर बेस कैंप काशीपुर। फिर गढ़वाल की चार धाम यात्रा। कोटद्वार से होकर पौड़ी,श्रीनगर, केदारनाथ, गंगोत्री यमुनोत्री की यात्रा । फिर गढ़वाल के चमोली जिले के तुंगनाथ फिर वापस बेस कैंप काशीपुर।
फिर शिमला, नरकंडा, थानेधार,मतिथान कुफरी,फागू रामपुर। रामपुर से पुनः कैलाश।

1960 में पुनः खानापरा पिथौरागढ़ से थल-वेरी नागगरूण ,ग्वालदम,कर्णप्रयाग , श्रीनगर, देवप्रयाग,टेहरी से धरासू नौगांव होते हुए भिक्षाटन के सहारे हिमाचल पहुंचे।…प्रो. साहब लिखते हैं – ‘वे नियमित यात्री नहीं थे। मन की मौज में वे यात्री बन गये। ‘ वहीं एक अन्य स्थान पर उप्रेती जी ने लिखा है कि -‘ वह अपनी यात्रा और अनुभवों को लिखते हैं। यह अनुभव उनके सुलझे विचारों के साथ हैं। इन लेखों में चमत्कार नहीं है। दिमाग का वह ताजापन खुला है जिससे वे दुनिया को बिना किसी पूर्वाग्रह के या किसी सींखचे में बैठकर देखते हैं। …सच्चे अर्थ में यही प्रगतिशीलता है।’

-फागूदास जी का प्रेम प्रसंग की बड़ी जटिल ट्रेजिडी है। एक बार कलकत्ता तथा दूसरी बार पूर्वी पाकिस्तान छान मारा। किंतु बिछुड़ी प्रेमिका लीला का पता न मिला। फिर फागूदास को 1963 बीस अगस्त को लीला की याद आती है। लिखा है इसी तारीख को उनका प्रेम उनसे जुदा हुआ था। उन्होंने लीला की जानकारी के लिए अमृत बाजार पत्रिका, बंगाली अखबारों में कितनी ही बार छापा पर कोई भी नतीजा नहीं निकला। अंत में वे निराशा में लीला की फोटो भी जला देते हैं। हंसना -बोलना बात करना बंद कर देते हैं। इसी मनोदशा पर प्रो. उप्रेती जोड़ते हैं कि- ‘इस मौलिक आदमी का यह शोक का ढंग है। लीला के नाम की सारी रचनाएं जला देते हैं। तेरहवीं मनाते हैं। आठ दिन के मातम के बाद वह फोटो की जगह पर लिखते हैं- ‘प्रेम जिवन का शत्रु है और मृत्यु का उपहार है। ‘नाम भी बदल देते हैं- प्रदीपचन्द्र दास!’

चमवा, हिमाचल प्रदेश में मुफलिसी के दौरान जिलाधिकारी से मदद की गुहार पर उन्हें दिए गये मजदूरी के प्रलोभन के बाद जिलाधीश को लिखे खत में काल के कपाल पर एंग्रीमैन की भांति उनके शब्द हैं-

‘आप ने जो बात मेरे कहा है इससे जाहिर है कि आप किसी नशा पीकर कहा था, या तो आपका दिमाग इस प्रकार के कुर्सि के काबिल नहीं है। आप यदि जिलाधीश हैं तव सरकार का पैसा मुफत में खा रहे हैं। क्योंकि आपके दिमाग कुछ सोच नहीं सकता है कि पीडब्लयुडी के मजदूरी करने के लिए जितना मजदूर जाता है का सब को आपने सिफारिश किया था या अपनी मर्जी से कर सकता है। यदि आपका दिमाग ठीक था तव आपने हमारे गरीब को जान बुझकर गलत रास्ता देखाया है या मजाक उराया है। आप एक जिलाधीश होकर इस प्रकार के विचार या बत करना कहां तक मुनासिब है।…मैं इस देश का निवासी हूं मुझे भी जीने का हक है तब क्यों आप मुझसे घृणा करता है। मेरे प्रार्थना को आप नहीं सुनता और अगर मेरा किस्मत ही खराब है तब ठीक है मेरे करम या किस्मत का फल है फिर आप और समाज किस काम के लिए बना है। यदि समाज सरकार नहीं होता तो मैं इसका दोष अपने भाग्य का मानता।’

इस प्रकरण के बाद आपके जुझारू छवि का एक अन्य प्रसंग है। क्लाइमैक्स में डायरी के ये शब्द भी गौर तलब हैं- ‘मैंने जीवन में कुछ अच्छा किया या नहीं पर यह मेरे जिवन का अन्तिम समय है। अगर मेरा इस डायरी से किसी को रासता मिल जाय या सोच समझ आ जाये तो बहुत अच्छा। 50 करोड़ जनता में किसी को कोई रास्ता मिल जाय तो बहुत खूब है। मैं समझुंगा मेरा जीवन धन्य है। यह मेरा जीवन व्यथा था जो पद्मादत्त को दे दिया है।…इति जिन्दगी के सफर में अपनी कहानी
प्रदीप चन्द्र दास सहित्य भवन
चमवा हि प्रा

उप्रेती जी अंत में जोड़ते हैं- ‘उसके बाद वह कहां गये क्या हुआ? जिंदा भी हैं या नहीं। कुछ पता नहीं चला। उनकी डायरियां एक ऐसे अनोखे इंसान की ताकत की गवाह हैं जिसने जिंदगी के हर पल को अपने अंदाज में जीते हुए जिंदगी को भी जीने का अंदाज़ सिखाया।’

वास्तव में ‘फागूदास की डायरी’ के हर एक वृतांत और दृष्टांत न केवल रोंगटे खड़े करते हैं बल्कि कम से कम साधनों में जीवन जीने की कला भी सिखाते हैं।

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आज जहां हर एक रचनाकार के पास मात्र अपने ही तामझाम से भरे अपने ही झोले हैं। जहां एक निश्चित दायरे में सबके अपने-अपने चिंतक, विमोचक, संकटमोचक खड़े हैं। जहां स्तरीय पुस्तकों की संभावना ही दुर्लभतम है। वहीं ऐसे समय में- एक बेहतरीन पुस्तक प्रकाशन के लिए प्रकाशन संस्थान ‘समय साक्ष्य’ भी बधाई के पात्र हैं!

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