बीना बेंजवाल |नारी शक्ति के बीच लोकमाटी से जुड़ी सक्रिय लिख्वार | साभार वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कठैत

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CITY LIVE TODAY-साभार वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कठैत

ग्वथ्नी! यानेकि अबाबील! तमाम पक्षी जगत के बीच एक अलग ही पहचान रखती है अबाबील पक्षी। घरौंदा भी अन्य अनेक पक्षियों की भांति घास फूस, कंकड़-पत्थर या सूखे तिनकों का नहीं बल्कि लोक माटी की सौंधी मिट्टी से निर्मित। यदि क्रिया कलाप के आधार पर भी अबाबील के जीवन दर्शन को समझने का प्रयत्न करें तो अबाबील सदृश्य सजगता, धैर्य, स्फूर्ति, अद्भुत रचनाशिल्प किसी अन्य पक्षी में मिलता ही नहीं। वस्तुतः यह लोक माटी की ही महक है जिसे अपनी अगली पीढ़ी का मार्गदर्शन करती है अबाबील। यह लिखने में भी अतिशयोक्ति नहीं कि लोक माटी के इसी सांनिध्य से इस भाव जगत में सुख समृद्धि की वाहक के तौर पर जानी जाती है अबाबील। अबाबील की ही भांति साहित्य जगत में नारी शक्ति के बीच लोकमाटी से जुड़ी रचनाशिल्पी तथा सक्रिय लिख्वार का नाम है -बीना बेंजवाल!

पिछली तीन दशाब्दी से बीना की साहित्यिक सक्रियता के आधार पर कह सकते हैं कि बीना उन समकालीनों रचनाकारों की पंक्ति में है जो आधुनिक भी हैं और प्रगतिशील भी। कालबोध और परिवेश बोध से लैश कुदरती शैली रही है बीना की। कविताओं में ठेट ग्रामीण प्रवाह है अतः स्वाभाविक है मिठास की भी कोई कमी नहीं।

बीना की तमाम रचना प्रक्रिया के बीच उसकी दो मौलिक पुस्तकें विशेष ध्यान खींचती हैं। प्रथम प्रकाशित पुस्तक का नाम है -‘मुट्ठी भर बर्फ’ ! चिट्ठी प्रकाशन, प्रकाशन वर्ष सन् 1995 ! यदि प्रथम ‘मुट्ठी भर बर्फ’ का ही अवलोकन करें तो पुस्तक की भूमिका बांधते हुए ‘अवधेश कुमार’ के सारगर्भित शब्दों को पढ़ते हैं। अवधेश कुमार लिखते हैं-‘ बीना बेंजवाल की कविता में पहाड़ के सीढ़ीनुमा खेत किसी ग्रंथ के पृष्ठों की तरह खुलते हैं और पर्वतीय जनजीवन का मानों एक सम्पूर्ण महाकाव्य छोटे-छोटे बिम्बों, भवस्थितियों, आत्मबोध और उच्छवास के साथ हमारे मानस पटल पर उद्घाटित होने लगता है- उम्र की किताब का एक पृष्ठ घटाती है तो/अनुभवों का एक पृष्ठ बढ़ाती जिन्दगी। मुट्ठी भर बर्फ,‘स्वनिर्मित रेखाएं, फिर वही सांझ’,‘कोहरा’,आत्मबोध तथा ‘पहाड़ पर’ जैसी कविताओं में एक सायास भावोदेक के साथ कवयित्री अपने आत्म की तलाश से संघर्षरत दिखाई देती है और कविता के वैयक्तिक संदर्भ सामाजिक सरोकारों के वृहतर आयामों को छूने लगते हैं।’

पुनः अवधेश जी द्वारा रेखांकित पंक्ति पढ़ता हूं- ‘उम्र की किताब का/एक पृष्ठ घटाती तो/अनुभवों का एक पृष्ठ/बढ़ाती जिन्दगी।’ कविता की जितनी वजनी प्रथम पंक्ति उतनी ही बाद वाली और उससे भी अधिक उसके बाद वाली गूढ़ गम्भीर। ठीक अगले पृष्ठ पर बीना अपने अनुभवों को खेत खलिहानों से जोड़ती मिली। लिखती है कि-‘किसी ग्रन्थ के खुले पृष्ठ से/ये सीढ़ीनुमा खेत/इन पर अपने गांव की कहानी /बांचने का मेरा प्रयास/जहां फुलकण्डियों के लिए/फ्यूंली के फूल चुनता चैत्र हो/हल की तेज नोक से/खेतों के सीनों से/अपनी भाग्यरेखा खींचता/किसान हो/खेतों की हरीतिमा को देखकर/हर्षाश्रुओं से छलछलाती आंखों को/कोहरे के रुमाल से पोंछता/सावन हो।’ कविता की इन सारगर्भित पंक्तियों में क्या ‘प्रयास’ शब्द लिख लेने भर से ही नई कलम की दृष्टि से आंकना उचित होगा बीना के इस अनुभव को?

बीना ने प्रकृति के हर्षाश्रुओं को पोंछने के लिए रूमाल को कोहरे के रूप में गजब का प्रतिमान दिया। लेकिन चूल्हा झौंकती गरीब, असहाय अबला के नसीब में रूमाल कहां? उसके लिए भी हैं बीना की ये पंक्तियां- ‘ लोग समझते हैं/घर अच्छी तरह से चल रहा है/ घर में चूल्हा जलता होगा/तभी तो/घर से निकल रहा है /धुआं/जो बादलों की तरह/खुद बरसने के लिए/नहीं उठता/वरन् बरसती हैं अंखियां।’ असहाय, गरीब अबला की भाग्य से बड़ी होती है कर्मरेखा। आप पर निर्भर है कि आप उसे भाग्य नाम दें अथवा विडम्बना!

घर की दहलीज लांघते हैं आंगन में बिछी एक दूसरी की दूरी को पाटती पठालों में भी रेखाएं ही रेखाएं हैं। कवियित्रि उस दृश्य को कुछ यूं देखती हैं- ‘ दो कठोर पठालियों के बीच की /दूरी पाठती हुई/चौक की हथेली पर स्वतः ही/बनती जाती हैं/छोटी-बड़ी व आड़ी-तिरछी/ कितनी ही रेखाएं ।’ लेकिन पहाड़ के पास इन रेखाओं को पढ़ने का समय ही नहीं है। साधन कम हैं लेकिन उसके साधक हताश फिर भी नहीं है। भोर से संध्या तक एक ही हर एक का एक ही गुरूमंत्र है-’ कर्म और कर्म!’ यही कारण है कि – ‘‘क्षितिज की अधखुली/पलकों से जब/शनैःशनैः झांकने लगता है/भोर का उजास/तब उसके साथ ही/उनींदी आंखें मलते हुए/जग जाते हैं/गांव के ओखल व नल।’ और यूं कठोर धरातल पर – ‘परत-दर-परत/निखरता जाता है मिट्टी का रंग।’ कर्म का प्रतिफल ’धूप- जो पका गई है/गेहूं के कच्चे दानों को/ काफल के/हरे दानों में भी/ घुल गई होगी/मिठास बनकर।’

बीना की कविता में मिट्टी से ही जुड़ा हुआ है एक और प्रसंग -लिखा है कि ‘खेत की/ जरा सी मिट्टी/चिपक गई थी/ मेरे कीमती लिबास पर/मैंने झटके से/ झाड़ दी। – पर/यह क्या/मेरी अपनी साया तो/खेत की/ उसी मिट्टी पर/आराम से/पसरी थी।’ हरेक भाव क्षणजीवी नहीं बल्कि पहाड़ की भांति गूढ़ गम्भीर दीर्घजीवी। यूं तो पहाड़ की सम्पूर्ण प्रकृति है ही कवितामयी। जैसे कि बीना ने लिखा भी है कि-‘पहाड़ रचता है कोहरे की कविता/बर्फ की तरह पिघलता है/सूरज का गोला/पहाड़ पर गूंजता है/एक मर्मभेदी स्वर/उसकीर कविता में लिपटे/हर शब्द में पड़ती है दरार।’ दरार अर्थात पहले मतभेद फिर मनभेद। इस सबका गुणा भाग – आग! वह आग – ‘जो एक ही/ चूल्हे में जलकर/बंटती थी/ गांव के घर-घर में।- अब/चूल्हों को ठंडा छोड़/सुलगने लगी है/ आदमी के दिल में।’ और भी – बहुत कुछ प्रतिबिंबित किया है बीना ने ‘मुट्ठी भर बर्फ’ में। लेकिन किसी कोण से भी नयेपन की जरा सी भी लड़खड़ाहट नहीं है कलम में। वर्षों पूर्व इसी संग्रह की कुछेक कविताएं अनुदित कर चुका हूं दिवंगत बी. मोहन नेगी जी के सांनिध्य में। पुस्तक ‘मुट्ठी भर बर्फ’ के संदर्भ में यदि समेकित रूप से कहें -तो निसंदेह -यह पहाड़ की ओर से हिंदी साहित्य की अच्छी पुस्तकों में एक है!

‘कमेड़ाऽ आखर’ – सन् 1996 में प्रकाशित गढ़वाल साहित्य परिषद, कानपुर के सहयोग से प्रकाशित बीना की इस पुस्तक के एक छोर पर हिन्दी तथा दूसरे छोर पर गढ़वाली में अनुदित रचनाएं हैं। किंतु मूलतः इस संग्रह के अक्षर भी लोकमाटी के संस्कारों में ही सने हुए हैं।

तनिक याद करें! लोक माटी से पाटी पर अक्षर ज्ञान के वे शुरूआती पल! गीली मिट्टी के घोल से पाटी के ऊपर रिंगाल की कलम से लिखे हुए चमकते अक्षर! लगता है जैसे सूखी धरती से फूट पड़े हों अचानक। बरबस नजर टिक जाती है बीना के गढ़े इन भावों पर -‘पाणी मा छोळेन्दि/कमेड़े डळी/कुंगळी हाथ्यूं पर थमीं/रिंगाळै कलमन।- काळी घोट्याईं पाटी पर/सबसे पैलि बण्ण वळा/रेखड़ा-मेखड़ा/मन कि सूखी-तीसी धरति मा/फूटि जंदन अचणचक्क/।’ यही कारण है कि सदैव स्मृति में जीवंत रहते हैं वे अक्षर।

इसी पुस्तक के पन्नों पर बीना ने दो प्रकृति से दो प्रतिमान लिये हैं- एक चांद दूसरा पत्थर!
आदरणीय है दिवार की पीठ पर टिका हुआ पत्थर! कब तक? हमारे बोझ उठाने की समस्या हल करेगा जब तक वह पत्थर। -‘कुछ दिन मा सरकि तैं/बाटा मा ऐ जालु ढुंग्गू/फिर अब वखमा बि/वेकि जरुरत/नि समझि लमडये जालु/वु उंद बिट्ठा उंद।’ – और धीरे-धीरे बढ़ता रात का मुुसाफिर चांद! पेड़ पौधों को ऐसा होता है भान! जैसे सर पर सफेद पोटली लेकर चल रहा है कोई श्रीमान! लालच में पसार देते हैं पेड़ पौधे अपड़े हाथ। ‘सर्ग का बाटा सुर्र-सुर्र हिटणी/राते बट्वे जोन/सफेद कुट्यरि देखि मुंड मा/पसरि जंदिन डाळ्यों कि हत्थि।’

बीना ने जहां एक ओर मूक चांद और स्थिर चित्त पेड़ पौधों को भी अभिव्यंजना दी वहीं पहाड़ी नारी की जीवन भर की कथा व्यथा भी उसने बहुत करीब से देखी। तभी तो लिखा है कि- ‘जगदा मुच्छ्याळौं का छोड़यां दाग/कबि घणा बौणों मा/ पराण सुखाणा रैन रिख-बाघ/फेर बि/बिना थक्यां/ वा हिटणी रै/ हिटणी रै।’ और वृद्धावस्था की तस्वीर -‘मोत्याबिन्द पडयां/आंख्योंन कम दिखेण पर/एक कांडु गडणा बाना/खैणि देंदि सैरि हथगुळि!’ भाषा पर जितनी मजबूत पकड़ उतनी ही गहराई भी। या यूं कहें सकारात्मक चिंतन के साथ उदार दृष्टि भी।

इसी सकारात्मक चिंतन और उदार दृष्टि की एकल साधना के साथ – बीना की पिछली दो दशाब्दी में संदर्भ साहित्य की दो अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकें भी पाठकों तक पहुंची। पहली सन् 2007 में ‘गढ़वाली हिन्दी शब्दकोश’ कलम साधक श्री अरविंद पुरोहित के साथ कलम साधकर साकार हुई। तथा दूसरी सन् 2019 में ‘हिन्दी गढ़वाली अंग्रेजी शब्दकोश’ त्रिभाषी कोष के रूप में अमूल्य निधि पाठकों को मिली। इस संग्रह में सहयोगी के तौर पर आपके साहित्यसेवी यशस्वी पतिदेव श्री रमाकांत बेंजवाल की महत्वपूर्ण भूमिका रही। दोनों पुस्तकों के प्रकाशक की जिम्मेवारी ‘विन्सर पब्लिशिंग क’ं ने सभाली। बीना की साहित्यिक श्री वृद्धि की इसी कड़ी में – शीघ्र ही- गढ़वाली भाषा की दो अन्य काव्य पुस्तकें भी पाठकों के हाथों में होंगी। निश्चित ही घर-परिवार के बीच कलम साधना को निरन्तरता बनाये रखना जीवटता का ही काम कही जायेगी।

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भुली बीना! अबाबील की भांति आप लोकमाटी की सेवा में यूं ही लगे रहो! आपकी काव्य-भाषा उत्तरोतर प्रौढ़ हो! साथ ही कला-साहित्य-संस्कृति के संरक्षण हेतु नई पीढ़ी के लिए आपके ये शब्द फलीभूत हों- कि- ‘पैलि यीं धरति कि समौण/कमेड़े सौंध्यळि बास सणि/गेड़ बांधी/सम्हळण द्या/वूं सणि अपणि आतमा मा/जां से वु/भीड़ मा/बिरड़ि नि जाउन/अपणा गौं कु बाटो

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