हो गया हरेला-हरेला तो कुछ काम की बात करें | वरिष्ठ पत्रकार अजय रावत की रिपोर्ट
सिटी लाइव टुडे, मीडिया हाउस | वरिष्ठ पत्रकार अजय रावत
बेशक दरख्त और जंगल से आबोहवा दुरुस्त होती है, आबोहवा दुरुस्त हो तो जिंदगी भी दुरूरत होगी। वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड में बीते कुछ वर्षों से हरेला जैसे सनातन त्योहार को इवेंट बना दिया गया है। दरख्तों और जंगलों को इस इवेंट से क्या हासिल हुआ और क्या होगा, यह दीगर बात है, लेकिन सियासतदां, सो कॉल्ड इंवेरेमेंटलिस्ट और फोटोफोबिया पीड़ितों के लिए यह शानदार मौका अवश्य बन गया है।
बहरहाल, मेरे पहाड़ में तो जंगल लगाने की कभी जरूरत ही महसूस न हुई, खेतों के साथ जंगल भी समान्तर रूप से फलते फूलते रहे। लेकिन अब संकट खड़ा हो चला है खेत बचाने का, जिन्हें जंगल लील रहे, लेकिन हरेला जरूर मनाया जा रहा, स्पॉन्सर्ड किया जा रहा। कोई ‘‘पुंगेड़ा‘‘ या ‘‘सगोड़ा‘‘ त्योहार का कांसेप्ट लाने को तैयार नहीं, जो हमारी असल जरूरत है। हमारे लिए तो जरूरत से 10 गुना ऑक्सीजन है ही, हां, दिल्ली वालों के लिए पैदा करनी है तो अलग बात..
बाकी, जंगलात महकमे के 3-4 दशक पुराने हरेलाओं के नतीजे जो ये चीड़ हमारे लिए अभिशाप बना है, पहले इसे हटाना जरूरी है….
सलग्न फोटोः आम जन जीवन की एक लाइफ लाइन को अवरुद्ध कर रहे एक जमींदोज हो चुके चीड़ के दरख््त को हटाते वरिष्ठ पत्रकार व लाइफ साइंस गुरु श्री गणेश काला।