‘ गोट ‘ पर पड़ी पलायन की मार, गोट ‘ क्लीन बोल्ड ‘ | द्वारीखाल से जयमल चंद्रा की खास रिपोर्ट

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उन्नत खेती के पारंपरिक तरीके में शुमार थी गोट या ग्वाट
गढ़वाल में बरसाती महीनों में खूब लगायी जाती थी गोट
अब गढ़वाल से पलायन कर गायब हो गयी गोट
सिटी लाइव टुडे, जयमल चंद्रा


बेशक आज उन्नत खेती के लिये वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग हो रहा हो और यह अच्छी बात है लेकिन पहाड़ के लोक-जीवन में उन्नत खेती के पारंपरिक तरीके एकदम अलग ही हुआ करते थे। सोने पर सुहागा यह कि उन्नत खेती के साथ सफाई का फार्मूला भी इसमेें समाहित था। साथ में बातों का तड़का अलग से भी। लेकिन अब आधुनिकता की चकाचैंध और पलायन के चलते ये पारंपरिक तौर-तरीके भी पलायन कर गायब हो चुके हैं। गढ़वाल में उन्नत खेती के इस पारंपरिक तरीके को गोट के नाम से जाना जाता था, लेकिन ये अब बीते जमाने की बात हो गयी है।

फोटो-साभार-जयमल चंद्रा, बमोली गांव, द्वारीखाल

गोट को कहीं जगह ग्वाट भी कहा जाता है। दशकों पहले करीब-करीब पहाड़ के हर गांव में गोट या ग्वाट लगायी जाती थी। दरअसल, बरसात के मौसम में यह तरीका प्रयोग में आता था। बरसात के तीन-चार महीनों में पशुओं को गांव से अलग कर खाली खेतों में रखने को ही गोट या ग्वाट कहा जाता है। बरसाती मौसम मंे खाली खेतों में घास-फूस से झोपड़ियां नुमा आशियाने बनाये जाते थे। कहीं जगहों टीन के छप्पर भी लगाये जाते थे। बरसात में इन्हीं में पशुओं को रखा जाता था। दिनभर पशु जंगल में चुगाये जाते थे और रात में इन झोपड़ी नुमा आशियानो में पशु रखे जाते थे। बारिश न हो तो खुले आसमान के नीचे भी पशु रखे जाते थे। इसके अलावा गांव के लोग भी इन्हीं झोपड़ी नुमा आशियानों मंे रहते थे।

जयमल चंद्रा


इससे फायदा यह होता था कि खेतों को प्रचुर मात्रा में गोबर-गौमूत्र मिल जाता था जिससे उन्नत खेती होती थी। खास बात यह है कि गोट लगने से गांव में सफाई व्यवस्था भी बनी रहती थी। दरअसल, बरसात में बारिश होने से जगह-जगह कीचड़ हो जाता था और पशुओं की आवाजाही से गंदगी और भी फैल जाती थी लेकिन गोट लगने से इससे निजात मिल जाती थी। गोट मंे देर रात में बातों का सिलसिला भी चलता था।

क्या कहते हैं गोट के प्रत्यक्षदर्शी
जनपद पौड़ी के द्वारीखाल ब्लाक के बमोली गांव निवासी जयमल चंद्रा, धीरज सिंह रावत, महावीर सिंह रावत, सनतन सिंह रावत, झब्बी लाल आदि ने खूब गोट लगायी है। वे बताते हैं कि गोट अब नहीं लगायी जाती है। उनके गांव बमोली में करीब पंद्रह-बीस साल पहले तक खूब गोट लगायी जाती थी। लेकिन अब गांव से पलायन भी तेज हो गया है और लोग पशु भी कम ही पाल रहे हैं।

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मुहूर्त निकाकर होती थी गोट समाप्त
द्वारीखाल के बमोली गांव निवासी जयमल चंद्रा बताते हैं कि पंडित जी से मुहूर्त निकालकर गोट का विधिवत समापन होता था। उधर, असवालस्यूं पट्टी के डुंक गांव के पूर्व प्रधान कुलदीप सिंह रौथाण ने बताया कि गांव में पहले गोट धरी जाती थी लेकिन अब यह समाप्त हो गया है।

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