लोक भाषा व साहित्य संरक्षण को कठैत ‘दहाड़’ | पढ़िये पूरी खबर

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सिटी लाइव मीडिया हाउस से खुलकर बोले वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कठैत
सिटी लाइव टुडे, पौड़ी गढ़वाल
लोक भाषा की दिशा व दशा और अन्य पहलुओं पर सिटी लाइव टुडे मीडिया हाउस से वरिष्ठ साहित्यकार व व्यंग्यकार नरेंद्र कठैत ने खुलकर बात की। सवालों के जवाब उनको बेबाकी से दिये। पेश है उनसे बातचीत के कुछ अंश।

सवाल- सोसल मीडिया की भूमिका को आप कैसे देखते हैं।
जवाब- कतिपय अति उत्साही लोग साहित्य को कान्ट्रेक्ट फार्मिंग की भांति करने लगे हैं। सोसल मीडिया में साहित्य की उसी कान्ट्रेक्ट फार्मिंग का स्पष्ट उदाहरण देखने को मिलता है। वे लोग भी तर्क वितर्क में मशगूल हैं जो भाषा से ही दूरी बनाकर चलते रहे हैं। आज धरातलीय ज्ञान एवं मातृभूमि से सम्पर्क से ज्यादा स्मार्ट फोन पहली जरूरत समझी जाने लगी है। नेटवर्क और नेट पैक पर ही बुद्धिमता निर्भर है। अधिसंख्य ऐसे हैं जिनसे भाषा का एक पैराग्राफ भी शुद्ध नहीं लिखा जाता। वे भी लाइव के नाम पर अधकचरा ज्ञान बांटने की मुहीम में लगे हैं। दुर्भाग्य यह है कि मौलिक सृजन से दूर नये रचनाकार भी इनकी चपेट में आ चुके हैं। भाषा के संबंध में तर्कों का कुतर्कों की ओर बढ़ना मातृभाषा की राह में अवरोध है।

वरिष्ठ साहित्यकार व व्यंग्यकार नरेंद्र कठैत

सवाल-लोक भाषा के धरातलीय स्वरूप पर क्या कहेंगे।
जवाब- कतिपय रचनाकार ऐसे भी हैं जो लोकभाषा और मातृभाषा की ही उधेड़बुन में हैं। जबकि स्पष्ट है कि लोकभाषा किसी भी क्षेत्र विशेष की मौलिक धरातलीय भाषा है। बंगाल की धरती की बंगाली। गुजरात की धरती की गुजराती। पंजाब की धरती की पंजाबी। किंतु बंगाल, गुजरात या पंजाब की धरती में निवास करने के कारण गढ़वाली या कुमाऊनी की मातृभाषा बंगाली, गुजराती य पंजाबी नहीं हो सकती। कहने का आशय यही है कि जरूरी नहीं कि जिस क्षेत्रविशेष में आप निवास कर रहे हैं वही आपकी मातृभाषा है।


सवाल- किसकी जिम्मेदारी है। सरकार की क्या रही भूमिका।
जवाब- बेहिचक कहने में कोई संकोच नहीं कि मातृभाषाओं को विकृत स्वरूप देने के लिए वे रचनाकार ही नहीं बल्कि वे पत्र पत्रिकाएं भी समान रूप से जवाबदेह हैं जो मातृभाषाओं के विकृत स्वरूप को स्थान दे रही हैं। यह विडंबना ही है कि अभी तक स्थानीय भाषाओं के शोध प्रबंधन तथा उनके संरक्षण संवर्धन के लिए एक अदद पुस्तकालय तक नहीं है। कला, साहित्य संस्कृति परिषद भी झुनझुना ही साबित हुआ है।

वरिष्ठ मौलिक रचनाकारों की साहित्य के प्रति उदासीनता से भी नये रचनाकारों में भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो रही है। ऐसी विषम परिस्थिति में नये रचनाकारों को यही सुझाव है कि वे संस्थाओं, मंचों, मालाओं के मोहपाश से लगाव कम करें । मातृभाषा की सेवा को मात्र एक इवेंट के तौर पर न लें बल्कि सतत अध्ययन, चिंतन मनन और सृजन करें।

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सवाल-कैसे प्रयासों की है आवश्यकता।
जवाब-गौर करें तो गद्य की स्थिति आज भी दयनीय है। ऐसी स्थिति में भाषाओं के संकटग्रस्त होने में कितनी देर लगती है। किंतु जिनकी सच्ची श्रद्धा है वे सतत सृजन में लगे ही हैं। वास्तव में सृजनशील ही हमारे प्रेरणा श्रोत हैं। अगर भाषा जीवित रखनी है तो उनका सर्वमान्य सरल, सुबोध, भाषा प्रवाह का अनुसरण किया जाना ही प्रासंगिक है।

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