Exclusive…यहां पितृपक्ष में केवल एक दिन किया जाता है पितरों का श्राद्ध| अनिल शर्मा की Report

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सिटी लाइव टुडे, मीडिया हाउस-अनिल शर्मा, लालढांग

सोलह दिनों के पितृपक्ष समाप्त हो गये हैं। इन सोलह दिनों में आप और हमने अपने पितरों के नाम कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये तर्पण व पिण्डदान किया। अब पितदेव अपने विदा हो चुके हैं। लेकिन इस खबर में हम आपसे पितृपक्ष से जुडे ऐस पहलू या परंपरा की बात कर रहे हैं। जो पहले शायद आपने नहीं सुना होगा। खबर के साथ अंत तक बने रहिये तभी खबर पूरी तरह से समझ में आयेगी। पितृपक्ष से जुड़ी यह अनोखी परंपरा कहीं और नहीं बल्कि लालढांग क्षेत्र के बुक्सा जनजाति क्षेत्रों में चली आ रही है।

दरअसल, यहां बहुत पहले ये ऐसी परंपरा चली आ रही है कि एक दिन ही पितरों के निमित पिण्डदान किया जाता है और वह खास दिन होता है अमावस्या का श्राद्ध।


एक बार फिर दोहरा देते हैं कि यहां बुक्सा जनजाति के लोग पूरे पितृपक्ष में बस एक दिन अमावस्या का ही श्राद्ध करते हैं। ऐसा क्यों किया जाता है यह आने निकट भविष्य में बतायेंगे। बरहाल, खबर यह है कि अमावस्या का श्राद्ध को धूमधाम से मनाया जाता है। कहने का मतलब यह है कि इस दिन को बड़े धूमधाम से भी मनाया जाता है। यहां लोग बताते हैं कि ये अपने पितरों का श्राद्ध एक ही दिन या अमावस्या को करते हैं। सुबह से घरों को सजाया-संवारा जाता है। तरह -तरह के ब्यंजन बनाये जाते है। पहले घरों में ही पितरों के निमित गुड चीनी का भोग लगाया जाता है और फिर रवासन नदी के तट पर पितरों के नाम श्राद्ध किया जाता है।


इसी क्रम में लालढांग क्षेत्र में बुधवार को बुक्सा जनजाति के लोगो ने पितृ अमावस्या धूमधाम से मनाई।ये लोग पितृ अमावस्या को त्यौहार के रूप में मनाते हैं।इस दिन सभी लोगो के घरों में पकवान आदि बनते है।क्षेत्र के नयागांव, इंदिरा नगर, मोल्हापुरी, सावरे गांव, जसपुर चमरिया, रसूलपुर डंडियांनवाला, मीठीबेरी रसूलपुर गोट गांव में बुक्सा जनजाति निवास करती हैं।

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ये लोग श्राद पक्ष में अपने पितरों को सोलह दिन तक अलग अलग तिथियों में तर्पण न करके अमावस्या को ही तर्पण किया जाता हैं। अमावस्या के दिन सवेरे घर की साफ सफाई करके घर की देहरी पर पितरों के स्वागत के लिये पुष्प गुड़ चीनी से भोग लगता हैं।उसके बाद सभी लोग रवासन नदी में जाकर स्नान आदि कर नदी जल में खड़े होकर एक प्रतीक चिन्ह बनाकर पुष्प, चीनी, गुड़, गाय का दूध आदि से कुशा की रस्सी बनाकर समूह में अपने अपने पितरों का स्मरण करते हुए मंत्रोच्चारण के साथ तर्पण करते हैं। उसके बाद नदी से जल भर कर लाया जाता हैं।

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