खरी-खरी| निक्कमी नहीं होती सरकार तो गुलजार होते ” गौं-गुठ्यार “| जगममोहन डांगी की रिपोर्ट
सिटी लाइव टुडे, जगमोहन डांगी, पौड़ी
बात एकदम खरी है। पलायन पर चिंता करना, रोकने के दावे व बातें करना साहित्य, संगीत व मंच तक ही रह गया है। राजनीतिक दलों के लिये यह पालिटिकल टूल बना हुआ है। हकीकत तो यह है कि पलायन को रोकने में सरकारें संजीदा ही नहीं है। सरकार कांग्रेस की हो या फिर भाजपा की। पलायन के मामले में दोनों ही सरकारें निक्कमी ही साबित हुयी हैं। हां, पलायन आयोग जरूर बना था लेकिन यह भी अपने मकसद से पलायन ही कर चुका है।
कोई दोराय नहीं है कि सरकार चाहती तो कोविड काल की आफत को अवसर में तब्दील कर सकती थी। कोविड वैश्विक महामारी के दौरान भारी संख्या प्रवासी अपने पैतृक गांव लौट आए थे। प्रवासी चाहते थे कि गांव में ही रोजगार करेंगे। लेकिन सरकार हवाई फायर करती रही। घर लौटे प्रवासियों को गांवों में रोजगार दिलाने की सरकार की योजनायें फाइलों से बाहर नहीं निकल पायी।
सरकारी प्रयासों का जिक्र नहीं करना भी बेईमानी होगी। कुछ वक्त मनरेगा में जरूर काम दिया जो परिवार भरण पोषण के लिए पर्याप्त नहीं था। सरकार ने स्वरोजगार का डंका जरूर पीटा लेकिन इस डंका की लंका ही लग गयी। अब दो साल बाद प्रवासी घरों को लौटे हैं लेकिन प्रवासी घरों में रोजगार के लिये नहीं आ रहे हैं बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों का पुण्य हासिल करने। अच्छी बात यह जरूर की जा सकती है कि इस बार प्रवासियों का घर लौटने का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। यह बात अलग है कि कुछ ही दिनों के लिये। काश कि सरकार कोविड की आफत को अवसर में बदलकर प्रवासियों के हाथों को काम से जोड़ पाती है तो बहुत संभव था कि गौं-गुठ्यार गुल-ए-गुुलजार होते। अफसोस कि ऐसा नहीं हो पाया।