ज्ञान व प्रेरणा देती बिल्कुल हटकर है ये ” बसंती ” |कहानीकार-बलबीर राणा ‘अड़िग‘

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सिटी लाइव टुडे, कहानीकार- बलबीर राणा ‘अड़िग‘


आदर्श पुरुषों और प्रकृति के अनुपम चरित्रों पर बच्चों के नाम रखने की परम्परा आदिकाल से रही है, बशर्ते इस कलिकाल में लक्षमसिंह भ्रातसेवक न होकर भ्रातहंता बन जाता है और राधा रुकमणी नाम अश्लील राधे माँ चरित्र। परम्परा के अनुरूप माँ बाप ने उसका नाम बंसतीं रखा कि उनके आते ही घर में बसंत आ गया और उनकी लाडली भी इसी मधुमास की तरह झकमकार फुल्यार और सुगंध वाली बने। आशावाद जीवन को उर्जित और अर्जित बनाने वाला जो ठहरा, सभी धर्मावलंबी इसी आशावाद से आज भी अपने आदर्श और देव पुरुषों के नाम रिपीट करते हैं।


बसन्ती का नाम भले बसंत पर हो लेकिन उसकी जिजीविषा को इस शब्द ने हमेशा ललकारा और जीवन उपहास करता रहा। हाँ उसने नाम को चरितार्थ करने के लिए कर्मो की आहुति देना जीवन पर्यन्त नही छोड़ा। लोग कहते बसंती तेरा भाग्य नहीं दुर्भाग्य है और दुर्भाग्य का जन्मांतर बसंत से बैर रहता है। पर बसंती को अपने पर आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास था कि वह जीवन को दो मासी बसंत नहीं बारामासी बंसत बनाएगी। उसे यकीन था कि सत्यपथ पर कर्मो की यात्रा बसंत रूपी जीवन तीर्थ पर ही विश्राम लेता है और कुपथगामी फलांग तक ही बसंत देख सकता उसकी अग्रिम राह चैमास के कुहासे में विलीन रहती है जहाँ जिजीविषा को कुछ नहीं दिखता और जीवन को उजास मिलने की उम्मीद बेमानी।


बसंती का बचपन बासंती बयार के संग चुलबुल गीत में फुदक रहा था कि भाग ने भताक मारी और अचानक इस कोमल लता पर ओला वृष्टि हो गयी, ऊपर उठते बेल के हाथों को वृष्टि ने ठंगरा’ कर दिया। आठ वर्ष में तात साया उठ गया। माँ उमा देवी का लावण्य यौवन रामस्वेणी’ के लबादे में कच्छ का रेगिस्तान बन गया। चंद्रमुखी लौंग के बिना नाक बेसुणा’ और अशोका बृक्ष के जैसे शंकुकार सिंदूर के बिगैर माथा खड़खड़ी’ चट्टान जैसे दिखने लगी। बिना माली के बगीचे में अब तीन पत्ते, आठ की बसंती चार साल का दीनू (दिनेश) अर माँ उमा। उस दिन माँ बार बार पछाड़ खा बसंती को गले लगाते कहती हे मेरी बसंती चले गया हमारा बंसत हमेशा के लिए और नन्हीं जान कहती नहीं माँ मैं हूँ।
पीताजी चरण सिंह की अपणी निजी गाड़ी थी जिला मुख्यालय से राज्य राजधानी तक रोज आने जाने का गंतव्य, बारह साल की ड्रावरी में न जाने कितने यात्रियों को उनकी सुखद मंजिल तक पहुंचाया था, मिलनसार आधुनिक व्यसन विष से परे ईमानदार आदमी, बड़े बड़े अधिकारियों की पसंद चरणी ड्राइवर। लक्ष्मी खूब मेहरबान हुई। चाक चैबंद घर कूड़ी से लेकर परिवार की आधुनिक साज सज्जा रखी थी। पढ़ी लिखी सुशील सहचरी उमा के साथ दाम्पत्य गमला बसंती और दिनेश दो फूलों से सुशोभित था।


बल जिसका भाग विधाता ने उल्टी कलम से लिखा हो उसके जीवन में खुशी जल्दी रुष्ठ हो जाती है। चरण सिंह भी इसी उल्टी कलम की लिखाई से था। पीताजी भरी जवानी में देश के लिए बॉर्डर पर चिन गया था उसी गस में माँ पाँच साल तक ही पेंशन खा पायी थी। पंद्रह की उम्र में बिना मात तात का पात चैराहे पर पड़ गया। पहाड़ी ढलान का गंगलौड़ा’ लुढ़कते संभलते जैसे तैसे बारहवीं कर पाया था। आगे माँ सरस्वती की बाट चलना मुनासिब न देख जिजीविषा ने गाड़ी का स्टेरिंग थाम लिया था। लगन ने तीन साल में ही गाड़ी का मालिक बना दिया था, अंदर बाहर चरण की चराचर, गिरस्थी में बसंत।


श्री लक्ष्मी का अधिक लगाव इन्शान को लालची बना देता है, भव्यता का लुभावन जैसे पतंग का दीपक। इससे चरण सिंह भी अछूता नहीं रहा था। दिन प्रतिदिन नींद हराम कर रात दिन सवारी ढोने लगा। इसी व्यस्तता में एक दिन, रात को सवारी छोड़कर शहर से अकेला घर आ रहा था कि हिम्मत पर नींद भारी पड़ी और गाड़ी सहित अलकनंदा में समा गया। अपना भाग अपने पीछे घर की डंडयाली’ पर बैठा गया।
आठ की चुलबुल बसन्ती के बासंती जीवन को अकारण जेठ की तपन, सावन के कुहासे और पूस की ठिठुरन ने एक साथ झपाक से दबोच लिया था। माँ उमा ने नारी सतीत्व सर माथे रख जवानी की रुमानियत को ठेंगा दिखाया और काठ के पहाड़ी जीवन में काठ की देह बनाते हुए गिरस्थ की मूठ संभाल ली। खेती बाड़ी, मनरेगा मजदूरी के साथ आंगनबाड़ी मास्टरणी से चरण सिंह की सजायी गिरहस्थी को बाग के जैसे बिल्ली कर रही थी।
बसंती बेटी-माटी जो ठैरी, कम उम्र में ही माँ की जांठी’ बन गयी चुल्हा चैका से लेकर खेत खलिहान तक सहारा। बेटों के बनस्पत बेटियां को भगवान समय से पहले संवेदनशील और अकलवान बना देता है, यह इसलिए भी कि वह धरती माँ का प्रतिरूप जननी होती है। जनक से जननी का स्थान जादा जिम्मेदाराना और पुज्य ठैरा साब। अठारह वर्ष में बारहवीं करने तक लकारवान’ बसंती ने ममता की छाँव में काष्ठ के पहाड़ी गिरस्थी के सारे गुर सीख लिए थे।


बेटी की बढ़ती देह देख माँ उमा को चिंता सताने लगी कि आगे की पढ़ाई के लिए बाहर कॉलेज में कैसे भेजूँ, पर बेटी भी सत्य सावित्री की कोख से जन्मी थी माँ को सब ऊँच नीच का वचन दे बसंती ने पितृ पिता चरण सिंह की मेहनती चरण धुली डंडयाली से माथे लगाई और शहर में डिग्री कालेज में एडमिशन ले लिया। छः साल कॉलेज और घर को बराराबर देखते हुए फर्स्ट डिवीजन से मास्टर डिग्री के साथ बी एड पास कर पक्की मास्टरनी बन गयी। भुला दिनेश भी इंटर पास हो गया था। परिवार में एक बार फिर बासंती बयार बहने लगी।


नौकरी के दो साल बाद समझाने बुझाने पर माँ ने बसंती के हाथ पीले कर दिए, जवांई पेशे के जलागम विभाग का सरकारी कलर्क था। घर की बासंती उड़कर दूर काली गंगा पार चली गयी। बुराँस सी लाल, प्योंली सी कोमल बसंती की जोड़ी निरा बेमेल, क्लर्क पतीदेव ठिगने कद का, काला, मितभाषी, रूखा गड़गड़ा’, कम उम्र में बड़ी तौंद, मुँह चैबीस घंटे गुटके से भरा और शाम को पव्वा का याड़ी। बसंती ने शादी के दिन ही देखा था, बरमाला के वक्त सिहरते सोच रही थी इस बेमल से कैसे निभाऊंगी पर अब कर भी क्या सकती वह सेहरा बांध देहरी पर माला ले खड़ा जो हो चुका था। बेमेल जीवन से सामंजस्य बनाना उसने माँ से खूब सीखा था, इसी बेमेल को जीवन का अटूट मेल बनाकर सहेजने का प्रण बरमाला डालते लिया।


शादी से पहले मिलने को उसीने व्यस्तता का वास्ता दे असहमति दी थी। फोटोशॉप की तस्वीर ठीक ठाक लगी थी वही उसकी सोशियल मीडिया डीपी भी थी। फिर बसंती भी आदर्श नारी की प्रतिमूर्ति, लज्जा से खुद मिलने की पहल नही की थी। गाँव वालों ने खूब ताने दिए कि ऐरां रामस्वेणी नोनी जवें मुच्छयळा जनु बाड़ी ढीन फर। भाग ने फिर भताक’ मारी थी। (अरे विधवा की की बेटी का जमाई जली लकड़ी जैसा मडुवे के हलवे का गोला) रिस्ता दूर की रिश्तेदारी ने दूर काली गंगा पार का ढूंढा था इसलिए लड़के का चाल चलन सूत बेंत बंसन्ती और माँ अच्छी तरह नहीं जान पाई थी। मात्र क्लर्की के खूंटे बाँधने और बंधने पर माँ बेटी तैयार हो गयी थी। एक धार’ पार बसंती की पोस्टिंग दूसरी धार पार जवांई की।

बसन्ती की छुट्टीयाँ कभी ससुराल में सास ससुर की सेवा कभी पति महोदय के साथ तो कभी माँ की खैर खबर में जंदरा’ बनी रहती। पति देव सच्ची में बाड़ी का जैसा ढीना, छुट्टी में भी अपनी जगह से हलचल नहीं होता फिर कहाँ की पिकनिक कहाँ का रोमांस घूमना फिरना। साल में महीना भी पति सानिध्य नहीं मिलता जिसके चलते पति को समझने और समझाने में समय की बेड़ियां आड़े आ रही थी।
बंसन्ती ने दाम्पत्य गाड़ी दुरस्त करने के लिए नोकरी छोड़ने का मन बनाया पर उसकी लगन और आदर्श शिक्षिका की भूमिका से सहकर्मीयों और माँ ने इजाजत नहीं दी। शादी की तीसरी सालग्रह पति के साथ कहीं बाहर मनाने की मंसा से जब वह लंबी छुट्टी लेकर पति के सरकारी आवास पहुंची तो कमरे पर ताला और पति नदारद पाया। ऑफिस और अन्य सहकर्मियों से पता चला पंछी उड़कर बिलैत को गई। वहीं पड़ोस की किसी शहरी महिला के साथ पंद्रह दिन पहले बोरी बिस्तरा बांध टेक्सी सवार हुआ था। और उससे पहले ही बड़ी पहुँच से जुगाड़ मारकर शहर में ट्रांसफर करवा लिया था।
अब खा बसंती माछा ! भाग की एक और भताक। एक बार फिर मायके की देहरी पर बैठा बाप का भाग्य उसे ठहाका मारते दिखा। बसंती कहाँ तेरा बसंत। एक महीने बाद उसका फोन आया कि कोर्ट में तलाक के लिए आ जाना, क्या करती तलाक पर हस्ताक्षर किए और रेगिस्तानी दाम्पत्य को तिलांजली दी।


बसंती कभी सोचती थी कि लोगों के तो साटी बुसेन्दा’ पर उसके चांवल क्यों ? चलो देखते हैं दुर्भाग्य कितनी भताक देता है असम्भव न बंश में था ना दूध में, कमर कसी और माँ सरस्वती सेवा भाई की पढ़ाई और माँ की देखभाल में जुट गई। माँ ने लाख समझाया कि दूसरी शादी कर ले अकेला जीवन पहाड़ जैसे होता है सामर्थ्य तक चढ़ेगी पर बाद में क्या होगा ? आज मैं हूँ कल को भै-भोज’ किसी के नहीं देखते। लेकिन बसंती ने भीष्म प्रण ली थी कि अब दूसरी शादी नहीं करेगी उसे पति जात से भय लगने लगा था।


बेमेल होने के बाद भी जिस मर्द को इतना चाहा दिन में दसियों बार फोन पर खुसखबर लेती थी। कितना अनुरोध किया था कि या मेरी पोस्टिंग अपने कार्यक्षेत्र में कर दो या आप ही यहाँ आ जाओ पर वह मर्यादा की सौतन पहले से बन बैठा था तो कैसे सात फेरे का महत्व समझता। अब आगे धोका नहीं खाना चाहती मैं भी उमा की बेटी हूँ अपने बच्चे नहीं होंगे तो कौन सी जागीर बंशहीन हो जाएगी, ये इतने विद्यार्थी मेरे बच्चे तो है मदर टेरिसा तो इंग्लैंड से आकर कलकत्ता में भविष्य के पौधौ को सींचती रही, ये तो मेरे मुल्क और मेरी थाती के बच्चे हैं।
अब बसंती का तन मन धन इलाके के गरीब बच्चों को संवारने, निआश्रितों और धार्मिक सेवा में इतना तेज भागने लगा कि पता नहीं चला कब मांग के बालों पर बर्फ गिर गयी। कुछ साल बाद माँ भी नाती सुख देख बैकुण्डवासी हो गयी थी। भुला दिनेश बच्चों सहित शहर में प्रवासी बन गया था।
अब अधेड़ बसंती ही पीताजी की बंजर खोळी’ खोलनहार, छुटियों में चैक, कुलाणा, बाड़ी-सगौड़ी’ साफ करती, लकड़ी पाणी कठ्ठा करती मकान पर धुंवाँ लागाती, द्यबतों’ के थान’ में दिया जलाती, तीनभित्या मकान के आठ कमरों और बाहर जगंले के बल्ब ऑन करती, घरबार में जाकर दादा दादी की निशानी कुठारों और फुँगलों को अगरबत्ती करती, रोटी सब्जी बनाती पितरों को अग्याल’ रखती, मोरी पर पंचमी को जौ लगाती दिवाली में फूल माला। और फिर फुर्सत पर डंडयाली में बैठे पीताजी के भाग और अपने भाग की हंसी ठिठोली देखती कि कौन असली बसंत।
उसके प्रण ने जीवन को स्वयं के नाम का पर्याय बसंत बनाने के लिए कभी विश्राम नहीं लिया शिक्षा सेवा में रहते हुए आदर्श शिक्षक राष्ट्रपति सम्मान, निआश्रित सेवा में कई समाज सेवा सम्मानों से नवाजी गयी। सेवामुक्त होने के बाद थाह नहीं ली पिताजी के त्यभित्या’ मकान को दुबारा सजाया संवारा, बगल में और कमरे बनाये फिर घर में ही निःशुल्क बाल विद्यालय खोल दिया।
अब दिन रात बच्चों की चैं चैं पैं पैं से तिबारी महकती है, बाड़ी सगौड़ी में झकमकार नाना प्रकार के पुष्प और सब्जियाँ खिलते हैं, गौशाला में दुध्यार’ गाय और उसकी बछिया रंभाती है, और इन सबके लिए एक झुकी कमर, आंखों पर जंरीर वाला चश्मा और सफेद मुंड की यौवना दिन रात खटकती। आज चरण सिंह के घर में बारामास बसंत कभी खिलखिलाकर हंसता कभी मंद मंद मुस्कारता और इसकी सुंगध से मोहित बसंती घिंदुड़ी जैसी फुदकती रहती और चरण सिंह का भाग्य उस डंडयाली को छोड़ चुपचाप कहीं चला गया था हमेशा के लिए।

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गढवाली शब्दों का अर्थ
भाग – भाग्य, ठंगरा – ठूंठ, रामस्वेणी – विधवा, बेसुणा – कुरूप, खड़खड़ी – बिना पेड़ पौधौं का भयावह। गंगलौड़ा – गोल पत्थर। डंडयाली – दोमंजिले वाला कमरा। जांठी – लाठी । लकारवान – योग्यवान। गड़गड़ा – अकड़ालू। भताक – ऊंचाई से गिरना। धार – रिज लाईन। जंदरा – हस्त चालक चक्की। साटी – धान। बुस्येन्दा – बाली पर दाना न बनना। भै-भोज – भय्या भाभी। खोली – मकान का मुख्य बड़ा दरवाजा। कुलाणा – मकान का पिछवाड़ा। बाड़ी सगौड़ी – बगीचे, द्यबता – देवता । थान – मंदिर। अग्याल – नैवेद्य। त्यभित्या – तीन दिवालों वाला। दुध्यार – दूध देने वाली।
/ बलबीर राणा ‘अड़िग‘

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