घिंडवाला तो यहां है लेकिन छिंडवाला कहां से आया और ये छिंदवाड़ा कब होगा घिंडवाड़़ा? |साभार-वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कठैत

Share this news

सिटी लाइव टुडे, मीडिया हाउस-साभार-वरिष्ठ साहित्यकार-नरेंद्र कठैत

आलेख के साथ एक स्थिर चित्र है। स्थिर चित्र के नीचे एक सीधी सड़क है। सड़क के बीच में एक बड़ा पथ फलक है। और ठीक सामने जेल है। हालांकि जेल का न तो इस सड़क और न ही इस पथ फलक के साथ कोई मेल है। लेकिन इतना अवश्य है कि जितना महत्व इस बड़े पथ फलक का है उतनी ही महत्वूपर्ण यह सड़क है। क्योंकि जहां पौड़ी देवप्रयाग राष्ट्रीय मार्ग पर विकास क्षेत्र कोट को जोड़ने वाली यह मुख्य सड़क है। वहीं पथ फलक पर स्थान विशेष से जुड़े बडे़-बड़े़े नामों के चमकीले अक्षर हैं इसलिए इस पथ फलक का महत्व भी अलग है।

किंतु पथ फलक पर लिखे कोटखाल, गढखेत, गेटीछेड़ा, खोला, छिंद्वाड़ा, व्यासघाट नामों को पढ़ते-पढ़ते यदि इनकी शूक्ष्म त्रृटियां नजर अंदाज कर दें तो ‘छिंदवाड़ा’ पर जाकर अवश्य अटकते हैं। क्योंकि इस बात से हम भली भांति जानते हैं कि कोट विकास क्षेत्र में छिंदवाड़ा नाम का कोई स्थान ही नहीं है।

24 अप्रैल को पथ फलक की इस त्रृटि पर दृष्टि पड़ी। वहीं से दूरभाष पर सक्षम जनप्रतिनिधि के सामने बात रखी। और – उन्हीं के अनुरोध पर उनके वट्स ऐप पर चित्र सहित स्पष्ट लिखा भी कि – ‘कृपया कोट विकास खण्ड की सरहद पथराड़ा में लगे उक्त बोर्ड का संज्ञान लेने का कष्ट करें। घिंडवाड़ा के स्थान पर छिंद्वाड़ा लिखा गया है। इतने बड़े पथ फलक पर यह गम्भीर चूक है। स्थान विशेष से जुड़े नाम हमारी कला, साहित्य, संस्कृति के प्राण बिंदू हैं। कृपया अपने स्तर से उक्त नाम संशोधन करवाने का कष्ट करेंगें।’

लेकिन आज भी पथ फलक पर त्रृटि यथावत ही है। कह नहीं सकता प्रतिनिधि महोदय ने उक्त पंक्तियों को ठीक से पढ़ा भी है या नहीं। क्योंकि कोई पठित प्रतिक्रिया नहीं मिली।

सवाल ये भी नहीं है कि इन विसंगतियों के लिए दोषी आप हैं या हम हैं किंतु स्थान विशेष के नामों का यूं गलत उल्लेख करना अपसंस्कृति ही है। स्थान विशेष के नामों से जुड़े ‘ळ’ अक्षर का उल्लेख तो कहीं मिलता ही नहीं है। ऐसी त्रृटियों को देखकर लगता है कि व्यवस्था का स्थानीयता के साथ कोई तारतम्य ही नहीं है। अन्यथा ऐसी त्रृटियों का होना संभव ही नहीं है।

यह विडम्बना ही है कि राज्य गठन के दो दशक बाद भी हम स्थान विशेष से जुड़ों नामों को लिखने में भी ऐसी चूक कर रहे हैं। जबकि ये नाम हमारी संस्कृति के प्रतीक चिंह्न भी हैं। यदि विकास की अवधारण के व्यापक दृष्टिकोण से भी आंकलन करने का प्रयत्न करें तब भी यह प्रश्न मन में उठता ही है कि ऐसे त्रृटिपूर्ण पथ फलक खड़े करने से पूर्व हम उन्हें भली-भांति पढ़ क्यों नहीं लेते हैं? और यदि भूलवश त्रृटि रह भी जाती है तो उसे तुरन्त सुधारने की कोसिस क्यों नहीं करते हैं?

ad12

प्रश्न एक नहीं कई विचारणीय हैं! किंतु देखना यही है कि ‘छिंदवाड़ा’ के स्थान पर ‘घिंडवाड़ा’ उकेरे जाने के लिए व्यवस्था कितना वक्त लेती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *