भू-कानून और मूल निवास | अटकेगी तो नहीं ‘एके’ की सांस ? | वरिष्ठ पत्रकार धनेश कोठारी की रिपोर्ट

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  • कर पाएंगे ठोस वादा या तलाशेंगे कोई सियासी शॉर्टकट?
  • भाजपा-कांग्रेस में भू-कानून पर विचार, मूल निवास पर चुप्पी

सिटी लाइव टुडे, मीडिया हाउस, धनेश कोठारी

आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस को बिजली के मुद्दे पर भले ही खदबदा दिया हो, लेकिन भू-कानून और मूल-निवास पर उसका स्टैंड क्या रहेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। क्या वह इन पर कोई ठोस खाका सामने पेश कर सकेगी? और क्या कांग्रेस-भाजपा के लिए इसपर ‘सियासी चक्रव्यूह’ रच पाएगी? या कि खुद के लिए भी वह ‘शॉर्टकट’ ही तलाशेगी?

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने हालिया देहरादून दौरे पर बिजली के क्षेत्र में उत्तराखंड के आमजन और किसानों को राहत पैकेज के तौर पर ‘चार गारंटी’ दी हैं। जबकि प्रदेश में शिक्षा और स्वास्थ्य की दिक्कतों को अपने दिल्ली मॉडल की तर्ज पर हल करने की बात कही है। लेकिन युवा उत्तराखंड की बुनियादी मांगें इससे भी आगे की हैं। यानि विशेष भू-कानून और संवैधानिक आधार पर मूल निवास।

प्रदेश में इनदिनों ‘भू-कानून’ पर बहसें तेज हैं। भाजपा ने इसकी गंभीरता भांपकर विचार करने का अभी इशारा भर किया है। वहीं पूर्व सीएम हरीश रावत ने अपने कार्यकाल में की गई कोशिशों का उल्लेख कर बौद्धिक वर्ग के भी इससे जुड़ने की जरूरत बताई है। ताकि खासकर भू-कानून की मांग 2022 के आम चुनाव का प्रमुख राजनीतिक एजेंडा बन जाए। जबकि आम आदमी पार्टी के सिर्फ स्थानीय नेताओं ने भू-कानून की डिमांड का खुला समर्थन किया है। अभी यह साफ नहीं कि समर्थन से पहले उन्हें अरविंद केजरीवाल ने सहमति दी भी है अथवा नहीं!

मूल निवास के मसले पर पर्वतजन दो टूक शब्दों में ‘कट ऑफ डेट’ संविधान उल्लेखित प्रावधान के अनुरूप चाहते हैं। क्योंकि पूर्व में विजय बहुगुणा की सरकार में मूल निवास का संवैधानिक आधार बरकरार रहने की बजाए ‘स्थायी निवास’ में पलट गया था। राज्य के क्षेत्रीय दलों में विरोध की छिटपुट आवाजें जरूर उठीं, लेकिन वे भी बेअसर रही।
ऐसे में जब आम आदमी पार्टी उत्तराखंड में खुद के तीसरा विकल्प होने का पूरजोर दावा कर रही है तो नजरें भी उसी पर ज्यादा रहेंगी। हालांकि इस मसले पर अभी उसकी तरफ से कोई पक्ष सामने नहीं आया है।

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लिहाजा, अगले महीनों में केजरीवाल जब अपने पत्ते खोलेंगे, तो क्या भू-कानून और मूल निवास के मुद्दे उसमें शामिल होंगे? क्या वह डिमांड के अनुरूप कोई ठोस वादा डिलीवर कर पाएंगे? या फिर उसे भी कांग्रेस और भाजपा की तरह किसी तरह का ‘डर’ सताएगा?

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