श्री नागदेव गढ़ीः जानिये क्या है फूल चढ़ाने का महत्व और हवन कुंड की राख का राज| जयमल चंद्रा की Report
सिटी लाइव टुडे, जयमल चंद्रा, द्वारीखाल
देवभूमि उत्तराखंड को वेदभूमि यों ही नहीं कहा जाता है। यहां के कण-कण में देवत्व का वास होता हैै। मठ-मंदिरों की महिमा निराली है, इनकी थाह लेना आसान नहीं हैै। आस्था और विश्वास अटूट है। ऐसी आस्था और विश्वास का मंदिर है-श्री नागदेव गढ़ी मंदिर। मान्यता है कि यहां केवल फूल चढ़ाने मात्र से ही सारी विघ्न-बाधायें छूमंतर हो जाती हैं। हवन कुंड की राख तो औषधि से भी बढ़कर काम करती हैै। कहते हैं कि इस राख को मानव और जानवर पर लगाने मात्र से रोग समाप्त हो जाते हैं।
इतिहास के आइने में-इतिहास के आइने में देखें तो श्री नागदेव गढ़ी मंदिर करीब 250 साल पुराना माना जाता है। यहां की लंगूर पट्टी में जन्मे संत महाराज स्वर्गीय 1008 श्री गंगा गिरी महाराज सेना में थे। इसके बाद संत श्री गंगा गिरी महाराज ने तीन साल तक कठोर तपस्या की।और इस सिद्धपीठ मे आकर अपने अंतिम समय तक रहे। कहते हैं कि श्री गंगा गिरी महाराज को जड़ी-बूटियों का ज्ञान था और वे जड़ी-बूटियों से लोगों का उपचार भी करते थे।
धार्मिक महत्व से हटकर देखें तो यहां प्रकृति के भी साक्षात दर्शन होते हैं। चैलूसैंण से दो किमी दूर पैदल मार्ग पर चलते हुये विभिन्न प्रकार के हरे-भरे पेड़ प्रकृति प्रेम का संदेश भी देते हैं। मंदिर के चारों ओर फूलों की क्यारी व फलदार वृक्ष सचमुच मन में सौम्यता और सुकून पैदा कर देते हैं। हिमालय के भी होते हैं दर्शन- मौसम अगर एकदम साफ है तो श्री नागदेव गढ़ी मंदिर से हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं। यहां से भैरवगढ़ी के दर्शन तो आसानी से हो जाते हैं।
बैकुंठ चतुर्दशी को होता है अनुष्ठान- यूं तो श्री नागदेव गढ़ी मंदिर के दर्शन को सालभर श्रद्धालु आते रहते हैं, लेकिन बैकुंठ चतुर्दशी के दिन यहां विशेष अनुष्ठान की परंपरा चली आ रही है। हर साल बैकुंठ चतुर्दशी के दिन यहां अनुष्ठान होता है जिसमें बड़ी संख्या में भक्त भाग लेते हैं। अनुष्ठान के साथ ही यहां रातभर जागऱण होता है, और दिन में भव्य व दिव्य मेला आयोजित होता है। इसमें प्रवासी ग्रामीण भी पूरी श्रद्धा के साथ आते हैं। सिद्धपीठ नागदेव गढ़ी की महिमा का वर्णन लोकगायक राकेश टम्टा ने अपने भजनों मे बखूबी किया है।