संदीप रावत | सोसल मीडिया से पैनी कर रहे लोक-संस्कृति की धार

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-साहित्यकार संदीप रावत की साहित्यिक यात्रा पर एक नजर
-लोक-संस्कृति के लिये सोसल मीडिया को बनाया हथियार

-सोसल मीडिया खूब सक्रिय रहते हैं साहित्यकार संदीप रावत

सिटी लाइव टुडे, श्रीनगर गढ़वाल

लोक-संस्कृति के संरक्षण व संबर्द्धन के लिये लगातार काम हो रहे हैं। आठवीं अनुसूचि में शामिल करने की मांग भी उठ रही है। अच्छी बात यह है कि पिछले कुछ समय से लोक संस्कृति के लिये अच्छा काम हो रहा है। युवाओं का रूझान बढ़ा है। सोसल मीडिया के जरिये भी लगातार लोक संस्कृति के लिये काम हो रहा है। लोक संस्कृति की खातिर साहित्यकार, रंगकर्मी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।

कहने का मतलब यह है कि लोक-संस्कृति के संरक्षण व संबर्द्धन के लिये सोसल मीडिया को हथियार बनाया गया है। ऐसी ही सक्रिय में हैं साहित्यकार संदीप रावत। लोक संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सोसल मीडिया मंे संदीप रावत बेहद सक्रिय नजर आते हैं। लोक-संस्कृति के मामले में सोसल मीडिया में सक्रिय लोगों की सूची में संदीप रावत का नाम टाॅप-10 में गिना जा सकता है। आइये, जानते हैं साहित्यकार संदीप रावत की साहित्यिक यात्रा के बारे में। जन्म पौड़ी गढ़वाल के पोखडा के अलखेतु गांव में हुआ। प्राइमरी से लेकर हाईस्कूल तक की शिक्षा वेदीखाल से प्राप्त की।


बचपन से गढ़वाली गीत -संगीत व गढ़वाली लेखन में रुचि रही। बचपन में रेडियो से लोकगीत, जीत सिंह नेगी, केशव अनुरागी, केशवानंद ध्यानी, शिव प्रसाद पोखरियाल आदि के गीत सुने बाद में रेडियो एवं कैसीटों के माध्यम से भी चंद्र सिंह राही, गोपाल बाबू गोस्वामी, गढ़ रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी के बहुत गीत सुनते थे। स्कूली सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं गाँवों की रामलीलाओं में प्रतिभाग करते थे । शुरू में संगीत घर पर अपने बड़े भाई संजय रावत से सीखा और फिर संगीत प्रभाकर करते हुए श्रीनगर में अपने गुरुजी वीरलाल जी से सीखा ।


संदीप रावत बताते हैं कि जब सन 2008 में काव्य पाठ हेतु आकाशवाणी पौड़ी गये। यहां वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कठैत से मुलाकात हुयी और साहित्यिक व सांस्कृतिक बातें भी हुयीं। मुलाकात में नरेंद्र कठैत ने उत्तराखंड खबरसार समाचार पत्र व इसके संपादक विमल नेगी के बारे में जानकारी साझा की।
यहीं से संदीप रावत के गढ़वाली गद्य लेखन की विधिवत शुरुआत हुई यानि प्रकाशन शुरू हुआ और तब से गढ़वाली गद्य व गढ़वाली पद्य लेखन में निरंतरता का क्रम जारी है ।


पांच गढ़वाली पुस्तकें प्रकाशित एवं एक गढ़वाली पुस्तक का सम्पादन।
-एक लपाग ( गढ़वाली कविता-गीत संग्रह), गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा (संदर्भ और शोधपरक गद्य संग्रह ),लोक का बाना (गढ़वाली आलेख संग्रह ), उदरोळ ( गढ़वाली कथा संग्रह ),तू हिटदि जा (गढ़वाली गीत संग्रह )प्रकाशित।
सम्पादन- गढ़ कवयित्रीयों के पहले वृहद गढ़वाली कविता संग्रह आखर (दिसा -धियाणयूँ को पैलो वृहद गढ़वाळि कविता संग्रै )

गतिविधियां –

(1) आखर समिति (श्रीनगर गढ़वाल ) संस्थापक एवं अध्यक्ष। आखर समिति गढ़वाली भाषा एवं साहित्य को समर्पित है जो कि इस दिशा मे एक नई सोच के साथ कार्य कर रही है।
(2) कई पत्र -पत्रिकाओं में गढ़वाली-हिंदी आलेख प्रकाशित।
(3) विभिन्न मंचों, आकाशवाणी, दूरदर्शन में काव्य पाठ।
(4) विभागीय एवं कार्यशालाओं के अंतर्गत गोहाटी, उदयपुर, हैदराबाद, मुंबई आदि में प्रतिभाग।

(5) गढ़वाली भाषा एवं लोक संस्कृति सम्बन्धी साहित्यिक एवं सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय।

अन्य

स्कूली शिक्षा में नावाचार–(1) गढ़वाल मण्डल के कई विद्यालयों की प्रार्थना सभा मे इस शिक्षक द्वारा रचित एवं धुन सहित तैयार दो गढ़वाली सरस्वती वन्दनाएं हो रही हैं ।
1- तेरु ही शुभाशीष।
2- द्वी आखरों कु ज्ञान दे।
डायट टिहरी द्वारा एवं एजीवी डिजिटल द्वारा भी तेरु ही शुभाशीष को संगीत के साथ तैयार किया गया है, जिसे गायिका एवं शिक्षिका आशा भट्ट ने अपनी आवाज दी है ।
साथ ही डायट टिहरी द्वारा तैयार की गई नमो भगवती गढ़वाली सरस्वती वंदना के कम्पोजर ।
(2)बालिका शिक्षा अभिप्रेरणा के अंतर्गत रचा गया गढ़वाली गीत -बेटी बचावा बेटी पढ़ावा मेरा मुलक्यो, बेटी पढ़ै की पुण्य कमावा मेरा मुलक्यो
(3)विद्यालय के छात्र -छात्राओं को अपनी मातृभाषा एवं लोक संस्कृति से जोड़ने हेतु प्रयासरत। उनको गढ़वाली लेखन एवं गढ़वाली पढ़ने हेतु प्रेरित करना।

आत्मकथ्य –

(1)बचपन से संकोची स्वभाव एवं अंतर्मुखी । अपनी बात, अपने मन के भाव एवं विचार, अपने जीवन के खट्टे -मीठे अनुभवों , समाज मे जो बि घटित होता है या हो रहा है इन बातों को व्यक्त करने हेतु इस साहित्य सेवी ने अपनी मातृभाषा गढ़वाली को माध्यम बनाया क्योंनकि इसमें वह आत्म गौरव महसूस करता हऔर गढ़वाली में लिखना सहज -सरल लगता है ।जो भी सीखा और पाया इस प्रकृति से ,अनुभवों एवं औरों से पाया।


(2)जब कोई यात्री अपनी यात्रा शुरू करता है तो चढ़ाई -उतराई, सीधे रास्ते, पत्थर -पहाड़ व अन्य विपरीत परिस्थितियों का सामना भी उसे करना पड़ता है। इसी तरह इस छोटी सी साहित्यिक यात्रा में कुछ कटु अनुभव हुए और हो सकता है आगे भी हों जो कि स्वाभाविक भी है। इन्हीं कटु अनुभवों, उपेक्षा और संघर्षों से श् तू हिटदि जा एवं श् घुप्प अंध्यारा मा बि उज्याळो देखि सक्दि त देखि ले श् जैसे गीत माँ सरस्वती व गुरुजनों के आशीर्वाद से दिल से उपजे और इन गीतों को आम लोगों ने भी बहुत पसंद किया।

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(3) गढ़वाली भाषा के उत्थान हेतु इसको व्यवहार में लाना, अपने आपस और घर -परिवार में अपनी इस मातृभाषा में बात करना,भाषा के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करना और नई पीढ़ी को इससे जोड़ना बहुत आवश्यक है ।

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